अरबों की आमद के बरकात

इस्लाम के दौरे अव्वल यानी *अहदे हज़रत उमर ( हज़रत उमर के शासनकाल ) में मुहीम आयी जिसका जिक्र आगे आता है ।

उसके कुछ अरसा बाद अरब ताजिरों ( अरब के व्यापारी ) के काफिले हिंदुस्तान आने लगे।

                मालाबार और कालीकट ( अरब सागर के तट पर केरल राज्य का हिस्सा ) वगैरह की सरजमीन ने उनका ख़ैर मकदम ( स्वागत ) किया, वह यहां बस गए। उनकी सादगी खुलुस ( प्यार ) और बुलंद अखलाकी (अच्छे स्वभाव ) ने उन इलाकों के पाशिंदो ( रहने वालो ) को भी अपने रंग में रंग दिया। दयानत और अमानत ( ईमानदारी ) और अमल व किरदार ( व्यक्तित्व ) की उमदगी ( खूबी ) का शहरा (चरचा) हिंदू राजाओं तक पहुंचा, एक राजा ने भी अकीदत व एहतेराम की नज़र से देखा और अपनी जुबान (भाषा) में कुरआन मजीद का तर्जुमा(अनुवाद) करा कर सुना। यही वजह हुयी कि उन इलाकों में इस्लामी ख्यालात और तहजीब की बुनियाद पड़ी।

इससे बढ़कर यहां की कौम में फहम व अदराक ( अक्ल और समझ) की ताक़त और इलुमो फुनून (इल्म व हुनर) से लगाव पैदा होने लगा।  मुसलमानो से पहले हिंदुस्तान में इल्म के ठेकेदार पंडित हुआ करते थे। अरबों ने बिना जात पात देखे इल्म व हुनर का ज़ौक (स्वाद) पैदा कर दिया। यहां के जो लोग भी मुसलमान हुए वह इल्म के ऐसे मतवाले हुए कि वतन छोड़कर इल्मी मरकजो (जहां इल्म सीखायी जाति है) में पहुंच गए। बहुत से वो थे जिनको अरब वतन जाते हुए अपने साथ ले गए और उनकी तालीम व तरबियत औलाद की तरह किया।

कोताह बिन मुवर्रखीन ( इतिहास की कम इल्म रखने वाले) उनको गुलाम करार देते हैं यह गलत है बल्कि नयी पौध को ले जाकर कुछ से कुछ बना दिया, यहां बे नाम व निशान रहते थे मगर आज इतिहास के पन्नो की जीनत बने हुए हैं। रिजाल की किताबों में सिंध के कई सारे उल्मा और मुहद्दसीन ( हदीस लिखने वाले) के नाम मिलते हैं।

                अबू मआशर बखीह सिंधी जो गुलामों में से थे, अरबों के साथ सिंध से अरब गए और मदीना मुनव्वरा में कयाम किया, फन मुगाज़ी ( जंग के फन) में वो कमाल पैदा किया कि इमामुल फन (हुनर के इमाम ) कहलाये। सदहा शागिर्द ( बहुत से छात्र) बना डाले 732 हिजरी में वफात पायी तो खलीफा हारून रशीद ने उस नौ मुस्लिम की नमाजे जनाज़ा पढ़ी। उनके साहबजादे अबू अब्दुल मुल्क मुहम्मद थे। मुमताज अहले इल्म में शुमार था। खलीफा मेहदी ने मदीना से बग़दाद बुला लिया 244 हिज़री में फौत हुए। उनका खानदान सिंध के कैदियों में से था 156 हिजरी में वफात पायी।


अबू मोहम्मद खलफ बिन सालिम सिंधी व अबू अब्बास फजल बिन सकीन बिन समत सिंधी अबू नसर फतेह बिन अब्दुल्लाह सिंधी अबू अता सिंधी अदीब ऐसे सिंधी थे जो अरबों में रहकर मुमताज उल्मा में शुमार किए गए। ऐसे ही यहां के लोग फन ए अदब मे भी साहिबे कमाल थे। शायरी में भी अपने उस्तादों के *हम पा ( बराबर) बन गए।

चुनांचा अबू तमाम ने अबू अता के हमासा ( अरब के पुरानी नज्मों के लेखक ) में अरबी शायरी नक़ल किए हैं। सिंधी बिन शाहिक बग़दाद पहुंचे और वहीं रह गए। उनकी नसल से कशाजिम पैदा हुआ जो अरबी का मशहूर शायर था। अबू नसर फतेह बिन अब्दुल्लाह सिंधी एक सिंधी गुलाम थे। तालीम पाकर अल-फसिहता अल- मुतकल्लिम ( बेहतरीन बोलने वाला ) मशहूर हुए। यह वो लोग थे जिन्होंने मुल्की मज़हबतर्क ( छोड़ देना) किया और आगोशे इस्लाम ( इस्लाम में दाखिल) में आकर साहिबे फजलो कमाल बन गए।

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अरबों का *मफ्तुहा इलाक़े ( वह इलाका जो फतेह कर लिया गया हो) के लोगो पर भी असर पड़ा कि देखा देखी इल्म से ज़ौक रखने लगे और सिंध से बग़दाद गए और खलीफा बिन अब्बास ने उनको हाथो हाथ लिया और जो इल्मी सुरमाया लेकर गए थे उसकी कदर और रवानी की। फहरिस्त इब्ने नदीम में हिंद कि उन इल्मी यादगारों का जिक्र महफूज़ है। मगर हिंदू भाइयों की किताबों से वह *फरामोश ( गायब ) हैं।

गर्ज कि अरबों ने यहां आकर अपनी क़ौमी रवायत को बरकरार रखा। अब हम अरबों की मुहीमों को विस्तार से वर्णन करते हैं।

तर्जुमा - इब्राहिम आबिस