जब मुहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर को हराकर और उसको कत्ल करके अपना हाकिम सिंध पर तैनात कर दिया।

फिर मुहम्मद बिन कासिम ब्रह्मणाबाद से रवाना हुआ तो रास्ते में अहले साविन्दरी आकर मिले, उन्होंने मुहम्मद बिन कासिम से अमान ( शांति) दरख्वास्त की, मुहम्मद बिन कासिम ने उन्हें अमान दे दी और इस्लामी फ़ौजों की मेहमानी की उनसे शर्त रखी यानी जब इस्लामी फौज उनकी तरफ से गुजरे तो उनके राशन का तथा दुश्मन के इलाके में रहबरी की जिम्मेदारी उनकी होगी। अहले साविन्दरी आजकल मुसलमान हैं। फिर मुहम्मद बिन कासिम बसम्द की तरफ बढ़ा वहां के लोगो ने भी अहले साविन्दरी की तरह पिछले शर्तों पर सुलह कर ली। मुहम्मद बिन कासिम बढ़ते बढ़ते रावीर तक पहुंच गया। यह सिंध के बड़ी शहरों में से है और एक पहाड़ी पर स्थित है। चंद माह तक अहले रावीर का मुहासिरा जारी रहा। आखिरकार इस शर्त पर बतौर सुलह फतेह किया कि मुहम्मद बिन कासिम न तो उनको कत्ल करेगा और न उनके मंदिर को तोड़ेगा। लिखने वाला कहता है कि यह बौद्ध मज़हब का इबादत खाना है बिलकुल उसी तरह जैसे ईसाइयों के गिरजे और यहूदियों के कनीसे और आतिश परस्तों के अतिशकदे। अहले रावीर पर खिराज मुकर्र किया और मस्जिद तामीर की और वहां से सीका शिखर की जानिब चल दिया। यह दरिया ए बयास के किनारे एक शहर है। मुहम्मद बिन कासिम ने उसको भी फतेह किया फिर दरिया ए बयास को उबूर करके मुल्तान पहुंचा। अहले मुल्तान ने उससे मुक़ाबला किया, सख्त लड़ाई हुई। जायदा बिन उमैर तायी ने अपने बहादुरी के खूब जौहर दिखलाए, मुशरिकीन को मैदाने जंग में शिकस्त हासिल हुई तो भागकर शहर में घुस गए और किला के दरवाजे बंद कर लिए।

मुहम्मद बिन कासिम ने अहले मुल्तान का मुहासीरा किया। मुहासिर बहुत लंबा हो गया मुसलमानों के सारे राशन खत्म हो गया जब कुछ न रहा तो गधे जीबह करके खा गए। आखिरकार एक शख्स मुसलमानों के पास आया और अहले मुल्तान जो पानी पीते थे उससे दाखिल होने और रास्ते का राज बताया। यह पानी बसमद नहर से आता है और शहर के अंदर बड़े हौज की शक्ल में जमा होता है और उसको मलाह तलाओ कहते हैं। मुहम्मद बिन कासिम ने उस पानी के रास्ते को पाटकर बंद कर दिया। जब वह प्यास की शिद्दत को बर्दाश्त नहीं कर पाए तो मुसलमानों के आगे हथियार डाल दिए। फिर मुहम्मद बिन कासिम ने लड़ने वालों को कत्ल कर दिया और बौद्ध मंदिर के छ हजार पुजारियों को गिरफ्तार कर लिया और बहुत सा सोना मुसलमानों के हाथ आया। यह तमाम माले गनीमत एक कोठरी में जमा किया गया दस गज लंबा और आठ गज चौड़ी थी, उसकी छत में एक रौशनदान खुला हुआ था। तमाम माल जो उसमे बतौर अमानत रखें जाते सब उसी रौशनदान से डाले जाते थे। इसलिए मुल्तान को सोने की कोठरी की सरहद कहा जाने लगा। मुल्तान का बौद्ध मंदिर इतना बड़ा मंदिर था की उसके लिए बहुत सारे सोना चांदी बतौर तोहफे लाए जाते थे, मन्नतें मानी जाती थी। अहले सिंध तीर्थ के लिए आते थे और उसके चक्कर लगाते थे, सर और दाढ़ियां उसके पास मुंडवाते थे जो बुत उनके अंदर है वो हजरत अय्यूब अलैहिस्सलाम हैं।

  मुवर्रिखीन ( इतिहासकार ) लिखते हैं कि हुज्जाज ने उस जंग के खर्च का हिसाब लगाया तो मालूम हुआ कि उसने साठ हजार छ करोड़ दिरहम मुहम्मद बिन कासिम पर खर्च किए और एक सौ दो हजार बारह करोड़ उसे हासिल हुए, तो उसने कहा कि हमने अपने गुस्सा को ठंडा कर लिया। यानी मकतुलीन ( मारे गए लोग ) का बदला ले लिया और साठ हजार छ करोड़ और दाहिर का सर लेकर फायदा में रहा।

  इसके कुछ वक्त बाद हुज्जाज का इंतेकाल हो गया तो मुहम्मद बिन कासिम के पास उसके वफात की खबर आयी। लिहाज़ा मुहम्मद बिन कासिम वापस मुल्तान से रावीर की जानिब चला इन दोनो मकामों को पहले ही फतेह कर लिया था। यहां आकर लोगों को तनख्वाह दी और एक लश्कर बेलमान की जानिब भेजा। इन्होंने मुहम्मद बिन कासिम की इताअत क़ुबूल कर ली।

अहले सिरसत ने भी सुलह कर ली। यह सिरसत आजकल बिसरा ( इराक़ के मशहूर शहर का नाम ) की फ़ौजों की हरबगाह ( लड़ाई की जगह ) है। यहां के बाशिंदे मैदाबहरी कज्ज़ाक ( डाकू/ लुटेरे ) जो हमेशा समुंद्र में डाका डालते हैं।

   फिर मुहम्मद बिन कासिम किरज आया तो दाहिर का बेटा दुहर मुक़ाबला के लिए निकला, लड़ाई हुई दुश्मन की फौज ने शिकस्त खाई और दुहर भाग निकला कुछ लोग कहते हैं कि उसे कत्ल कर दिया गया। शहर वालों ने हार के बाद अपने हथियार डाल दिए ।

   94 हिजरी में खलीफा वलीद बिन अब्दुल मुल्क की वफात हो गयी और सुलेमान बिन अब्दुल मुल्क उसकी जगह खलीफा हुआ तो उसने सालेह बिन अब्दुर्रहमान को इराक़ का गवर्नर बनाया और यजीद इब्ने अबी कब्शा को सिंध का। यजीद ने मुहम्मद बिन कासिम को मुआविया बिन मुतलब के साथ गिरफ्तार करके भेजा तो उसने उस वक्त मुहम्मद बिन कासिम ये शेर अपने अपने हाल के ऊपर पढ़ा।

 तर्जुमा -लोगों ने मुझे खो दिया मगर अफसोस उन्होंने लड़ाई के दिन सरहद के लिए मजबूती से काम आने वाले कैसे अच्छे नौजवान को खो दिया।

    अहले हिन्द मुहम्मद बिन कासिम की गिरफ्तारी पर खूब रोये और किरज में मुहम्मद बिन कासिम का मुजस्सिमा बना दिया। सालेह ने मुहम्मद बिन कासिम को वास्त ( इराक़ के शहर का नाम ) में कैद कर दिया। उस वक्त मुहम्मद बिन कासिम ने ये शेर पढ़े।

 तर्जुमा - अगर आज मैं वास्त और उसकी सरजमीन में पाबंद सलासिल दस्त बजंजीर तौक दर गलु ( मेरे गर्दन और हाथो में ज़ंजीरें ) हूं तो इसपर अफसोस नहीं क्योंकि मैंने बहुत से नौजवान सिपाहियों अपनी हैबत से ताकतवर बनने पर जोर दिया और कितने ही अपने जैसों को मैदाने जंग में मकबूल कर दिया।

और फिर ये अशआर पढ़े।

तर्जुमा - अगर मैं मुक़ाबला में ठहरने का इरादा कर लेता तो बहुत सी औरतें और मर्द जो लड़ाई के वास्ते तैयार थे वो पामाल कर दिए जाते और न उनके घोड़े हमारे इलाके में दाखिल होते और न कोई मुझ पर अमीर ( मालीक) होता और न मैं गुलाम का ताबे होता। ऐ शरफा ( शरीफों ) को तबाह करने वाले जमाना तेरा बुरा हो।

सालेह बिन अब्दुर्रहमान ने अबू अकील के खानदान और लोगों के साथ साथ मुहम्मद बिन कासिम को भी सख्त तकलीफ़ पहुंचाए। यहां तक कि उनको कत्ल कर दिया, हुज्जाज ने सालेह के भाई आदम को कत्ल किया था, उसी के इंतिकाम में मुहम्मद बिन कासिम को सालेह ने कत्ल किया। आदम ख्वारिज ( हजरत अली रजी० को नही मानने वाला ) का अकीदा रखता था, खारीजुल मजहब था। याबज हनफी ने मुहम्मद बिन कासिम की वफात पर ये शेर पढ़ा है।

तर्जुमा - बेशक मुरव्वत, रवादारी और जवां मर्दी मुहम्मद बिन कासिम के लिए मखसूस थी सत्तरह ( 17 ) साल की उम्र में फ़ौजों की सिपहसालारी ( सेनापति ) की ।

एक दूसरा शायर कहता है

तर्जुमा - सत्तरह साल की उम्र में मर्दों की सिपहसालारी की जबकि उसके उम्र के बच्चे सरदार का मतलब भी नही समझते थे और खेलकूद में मसरूफ रहते थे।


तर्जुमा - इब्राहिम आबिस