अहदे वलीद बिन अब्दुल मुल्क

  हुज्जाज ने वलीद बिन अब्दुल मुल्क से इजाज़त लेकर अपने चचेरे भाई और दामाद मुहम्मद बिन कासिम बिन अकील सक्फी को जो उस वक्त शिराज में था, हुक्म दिया कि वह फौज लेकर सिंध पर हमला करे। मुहम्मद बिन कासिम ने छ हजार सिपाही और उसके अलावा बहुत सारे तजुर्बाकार लोग उसके लश्कर के साथ शरीक कर लिए और तमाम जरूरी सामान यहां तक कि सूतली ( धागा ) सूई का भी बदोबस्त किया गया और धनी हुई रुई ली और पुराने अंगुरी सिरका में उसे डुबोया और धूप में सुखाकर मुहम्मद बिन कासिम के पास भेजा और कहा कि जब तुम सिंध पहुंचोगे तो वहां सिरका बहुत कम है तो इस रुई को पानी में डुबो लेना फिर इससे रोटी लगाकर खाना सिरका का काम करेगा। अरब के लोग सिरका से रोटी खाने के बहुत आदी थे।

 मुहम्मद बिन कासिम शिराज से चलकर मकरान पहुंचा। चंद रोज़ यहां कयाम किया। फतरपुर और अरमायल को फतह किया। मुहम्मद बिन हारून बिन ज़राअ मुहम्मद बिन कासिम से आ मिला और लश्कर में शामिल हो गया और उसी के हमराह चल दिया मगर अरमायल के पास ही उसका इंतेकाल हो गया और कंबल में दफ्न कर दिया गया, फिर मुहम्मद बिन कासिम अरमायल से रवाना हुआ। जिहम बिन सक्फी उसके हमराह था जुमआ के दिन दीबल पहुंचे और वह कश्तियां भी पहुंच गईं जिनपर समुंद्री फ़ौजें, सामान और हथियार रखे गए थे। मुहम्मद बिन कासिम ने दीबल पर उतरते ही लश्करगाह के चारों तरफ खंदक खुदवाई, खंदक के किनारों पर नेज़े गाड़ दिए और लोगों को उनके झंडे के नीचे ठहराया गया।

  दीबल में एक बड़ा बौद्ध मंदिर था, उस मंदिर के बुर्ज ( गुंबद ) पर एक लम्बी बल्ली लगी हुई थी उस बल्ली पर एक सुर्ख झंडा था, ये झंडा इतना लंबा चौड़ा था कि जब हवा चलती तो तमाम शहर को घेर लेता और घूमने लगता।

                                                             तर्जुमा - इब्राहिम आबिस